मान्यता है कि सृष्टि का सृजन, पालन और संहार त्रिदेव-बहमा, विष्णु, महेश अपनी शक्तियों- सरस्वती, लक्ष्मी, काली के माध्यम से करते हैं, किंतु सीताजी ये तीनों काम स्वयं करने में समर्थ हैं।
इसके साथ ही वे क्लेशहारिणी भी हैं। सीता ने समय-समय पर अद्भुत धर्य का परिचय दिया। चाहे राम के साथ वनगमन हो या वन में अपने पुत्रों लव-कुश के पालन-पोषण का दायित्व, सबमें उन्होंने अपरिमित सहनशीलता दिखाई। यह गुण मातृत्व का बोध कराता है, जो आज भी प्रासंगिक है। वस्तुत: सीताजी ममता का ही मूर्तिमान स्वरूप हैं, जो जीवों के क्लेश दूर करने के लिए सदा तत्पर रहती हैं। भगवती सीता मात्र अपनों पर ही नहीं, वरन समस्त प्राणियों के प्रति वात्सल्य-भाव रखती हैं। जगदंबा सीता सब पर समान रूप से अनुग्रह करती हैं।
श्रीरामदूत हनुमानजी की सेवा एवं समर्पण-भाव से संतुष्ट होकर सीता माता उन्हें आशीर्वाद रूपी यह वरदान देती हैं-'आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।। अजर अमर गुन निधि सुत होहू। करहुं बहुत रघुनायक होहू।।'
मान्यता है कि हनुमानजी सीता माता के इस आशीर्वाद से चिरंजीवी हुए। सीताजी के प्रति मातृ-भाव रखने वाले हनुमानजी ममतामयी माता (सीता) के वात्सल्य से अभिसिंचित हो गए। श्रीराम के अनुज लक्ष्मणजी भी अपनी भाभी सीता के प्रति माता की भावना रखते थे। सीता जी को जब निर्वासन का दुख भोगना पड़ा, उस समय भी वाल्मीकि आश्रम में उन्होंने अपने पुत्रों लव-कुश का एक श्रेष्ठ माता की भांति पालन-पोषण किया। उन्हें इस तरह शिक्षित और संस्कारित किया कि वे जीवन की किसी भी परिस्थिति से न घबराएं। तभी तो नन्हे लव-कुश में इतना आत्मविश्वास था कि वे राम के दरबार में उनके सम्मुख खड़े होकर अपने विचार संप्रेषित कर सके।
मान्यता है कि सीता जी का ध्यान सरस्वती माता की तरह अविद्यारूपी अंधकार को नष्ट करके निर्मलमति प्रदायक के समान है-
'जनक सुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुणानिधान की।। ताके जुग पद कमल मनावउं। जासु कृपा निरमल मति पावउं।।'
सीता जी की लक्ष्मी माता जैसी महिमा उनके विवाह के समय दिखाई पड़ती है। बारात के आगमन पर जनकपुर में अपने पिता की लज्जा रखने हेतु और श्रीरघुनंदन की मर्यादा के अनुकूल कुछ कार्य उन्होंने परोक्ष रूप से किया- 'जानी सियं बरात पुर आई। कहु निज महिमा प्रगटि जनाई।। हृदयं सुमिरि सब सिद्धि बुलाई। भूप पहुनई करन पठाई।। '
सीताजी सब सिद्धियों को बुलाकर राजा दशरथ एवं बारात के स्वागतार्थ भेजती हैं। सृष्टिकर्ता ब्रहमाजी जनकपुर की शोभा देखकर अचंभित हो गए, क्योंकि वहां की सजावट उनकी कृति से परे थी-'विधिहिं भयउ आचरजु विसेषी। निज रचना कहुं कतहुं न देखी।।'
बारात के ठहरने की जगह (जनवासे) में भी सिय-महिमा दिखती है-'सिधि सब सिय आयसु अकनि गई जहां जनवास। लिए संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास।।'
जनकपुर का ऐश्वर्य देखकर देवगण भी आश्चर्यचकित हो गए। लंका में सीता जी का प्रवेश काली-स्वरूपा कालरात्रि के रूप में हुआ। लंका में उनके आगमन से ही राक्षस-कुल के नाश का मार्ग प्रशस्त हुआ।
रावण की महारानी मंदोदरी सीताजी के इस रूप को पहचान गई थी, अत: उसने उन्हें रामजी को लौटा देने की प्रार्थना रावण से की थी। विभीषण ने भी सीताजी को आदर के साथ श्रीरामजी को लौटा देने का परामर्श दिया था, पर रावण ने उनकी भी नहीं सुनी। अंततोगत्वा रावण और उसके राक्षस-कुल का विनाश हुआ।
मान्यता है कि भगवती सीता में सरस्वती, लक्ष्मी, काली की तरह सृजन-पालन-संहार की त्रिगुणात्मक शक्ति सन्निहित है। लेकिन वे जीव-मात्र पर अपना वात्सल्य लुटाती रहती हैं। तभी तो इन आद्या शक्ति की स्तुति में कहा गया है-'या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।' जो देवी सर्वत्र माता के रूप में स्थित है, उनको बारंबार नमस्कार है।
शास्त्रों के अनुसार, जगदंबा सीता संपूर्ण जगत की माता हैं। सीताजी की उपस्थिति के कारण ही जनकपुरवासियोंको श्रीराम (परमात्मा) के दर्शन का लाभ मिला। इसी से संतों में यह
कहावत प्रसिद्ध है-
'जनकनंदिनी पदकमल जब लगि हृदय न वास। राम भ्रमर आवत नहीं, तब तक ताके पास।।'
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