आम तौर पर हम अपनी वृत्ति (प्रकृति) के गुलाम होते हैं। मीठी बातों पर मुस्कुराते रहते हैं, लेकिन जब कोई कड़वी बात कह दे तो दुखी हो जाते हैं। भीतर की स्वाधीनता के लिए हमें अपनी वृत्ति से निवृत्ति पानी होगी। स्वामी विवेकानंद के स्मृति दिवस (4 जुलाई) पर उनका चिंतन..
एक बार जब मैं बोस्टन में था, तो एक दिन एक युवक मेरे पास आया और मेरे हाथ पर उसने एक कागज का टुकड़ा रख दिया। कागज पर किसी व्यक्ति का नाम-पता और संदेश हाथ से लिखा था। उसमें संदेश लिखा था कि दुनिया की सारी दौलत और सुख पाने की तरकीब सीखिए। फीस सिर्फ पांच डॉलर। उसने मुझसे पूछा - आपका क्या विचार है? मैंने कहा - पहले कम से कम इसे छपाने के लिए पैसा तो कमा लो, फिर दौलत कमाने की तरकीब सिखाना। मेरे कहने का आशय वह नहीं समझ सका।
वह इसी विचार में मस्त था कि बिना कोई तकलीफ उठाए ही उसे तमाम सुख और पैसा मिल जाएगा।
हम इस दुनिया में मनुष्यों में दो प्रकार की चरम वृत्तियां पाते हैं। पहली है चरम आशावादी वृत्ति, जिसमें हर एक वस्तु हमें सुंदर, हरी-भरी और अच्छी प्रतीत होती है। दूसरी है चरम निराशावादी वृत्ति, जिसमें ऐसा प्रतीत होता है कि सारी बातें हमारे मन के प्रतिकूल हैं। अधिसंख्य लोग अविकसित मस्तिष्क होते हैं। दस लाख में एक व्यक्ति ही ऐसा कोई होता है, जिसकी बुद्धि का सही विकास हुआ हो। बाकी के लोग या तो अधकचरे होते हैं या
सिरफिरे। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि हम एक न एक चरम वृत्ति का आश्रय लेते हैं। जब हम नौजवान और शक्तिवान होते हैं, तो हमें ऐसा मालूम होता है कि दुनिया की सारी भोग की चीजें हम ही पाने वाले हैं और वे हमारे लिए ही पैदा की गई हैं। बाद में जब अशक्त हो जाते हैं या हम बूढ़े हो जाते हैं, तो हम खांसते-खांसते एक कोने में जा बैठते हैं और फिर दूसरों के उत्साह पर भी पानी फेरने लगते हैं। बहुत थोड़े मनुष्यों को इस बात का ज्ञान है कि दुख के साथ सुख और सुख के साथ दुख लगा हुआ है और सुख भी उतना ही घृणित है, जितना कि दुख। क्योंकि सुख और दुख दोनों जुड़वां भाई हैं। जिस तरह दुख के पीछे दौड़ना हमारे मनुषत्व की विडंबना है, उसी तरह सुख के पीछे दौड़ना भी। जिसकी बुद्धि संतुलित है, उसे दोनों का ही त्याग करना चाहिए। अपनी वृत्ति के हाथ का खिलौना न बनने का प्रयत्न हम क्यों न करें।
ज्ञानी पुरुष वृत्ति की स्वाधीनता चाहता है। वह जानता है कि विषय भोग निस्सार हैं और सुख-दुख का कोई अंत नहीं है। दुनिया के कितने धनवान नया सुख ढूंढ़ने में लगे हुए हैं, किंतु जो सुख उन्हें मिलता है, वह पुराना ही होता है। कभी कोई नया सुख हाथ नहीं लगता। क्या तुम नहीं देख रहे हो कि क्षणिक सुख-संवेदना के लिए प्रतिदिन किस तरह नए-नए आविष्कार किए जा रहे हैं। फिर होती है प्रतिक्रिया। अधिकांश लोग तो भेड़ों के झुंड के समान हैं। अगर आगे की एक भेड़ गड्ढे में गिरती है, तो पीछे की सब भेड़ें उसमें जाकर गिर जाती हैं। इसी तरह समाज का मुखिया जब कोई बात कर बैठता है, तो दूसरे लोग भी उसका अनुकरण करने लगते हैं और यह नहीं सोचते कि वे क्या कर रहे हैं। जब मनुष्य को ये सांसारिक बातें निस्सार प्रतीत होने लगती हैं, तब वह सोचता है कि वह अपनी वृत्ति के हाथों का खिलौना बन चुका है। वह चाहता है कि खिलौना बनकर वह उसके बहकावे में न आए। यह तो गुलामी है। कोई अगर दो-चार मीठी बातें सुनाए, तो मनुष्य मुस्कुराने लगता है और जब कोई कड़ी बात सुना देता है तो उसके आंसू निकल आते हैं। वह तो रोटी के एक टुकड़े का, एक सांस भर हवा का दास है। वह तो कपड़े-लत्ते का, स्वदेश प्रेमी कहलाने का, अपने देश और अपने नाम-यश का गुलाम है। इस तरह वह चारों ओर से गुलामी के बंधनों में फंसा है और उसका यथार्थ व्यक्तित्व, उसका सच्चा मनुष्यत्व इन सब बंधनों के कारण उसके अंदर गड़ा पड़ा हुआ है।
जिसे तुम मनुष्य कहते हो, वह तो गुलाम है। जब मनुष्य को अपनी इस सारी गुलामी का अनुभव होता है, तब उसके मन में स्वतंत्र होने की इच्छा अदम्य इच्छा उत्पन्न होती है। यदि किसी मनुष्य के सिर पर दहकता हुआ अंगार रख दिया जाए, तो वह मनुष्य उसे दूर फेंकने के लिए कैसा छटपटाएगा। ठीक इसी तरह वह मनुष्य, जिसने सचमुच यह समझ लिया है कि वह अपनी वृत्ति का गुलाम है, वह स्वतंत्रता पाने के लिए छटपटाता है।
वृत्ति से स्वतंत्रता पाने की इच्छा यानी मुमुक्षुत्व आवश्यक है। इसके बाद आता है 'नित्यानित्य विवेक'। सत्य क्या है और मिथ्या क्या है, क्या चिरंतन है और क्या नश्वर, यह भेद जानना ही नित्यानित्य विवेक है। केवल परमेश्वर ही शाश्वत है और बाकी सब कुछ नश्वर। देवदूत, मनुष्य, पशु, पृथ्वी, सूर्य, चंद्र, तारे सभी नष्ट होने वाले हैं। सभी का विनाश अवश्वयंभावी है। प्रत्येक वस्तु का निरंतर स्थित्यंतर होता रहता है। आज जहां पर्वत हैं, वहां कल समुद्र था और कदाचित कल वहां पुन: समुद्र दिखलाई देगा। प्रत्येक वस्तु अस्थिर है। यह सारा विश्व ही एक परिवर्तनशील पिंड है। एकमात्र परमात्मा ही ऐसे हैं, जिनमें परिवर्तन कभी नहीं होता और हम उनके जितना ही अधिक समीप जाएंगे उतना ही कम हममें परिवर्तन या विकार होगा।
इस तरह हम देखते हैं कि यदि ऐसी साधना हमने की है, तो वास्तव में इस दुनिया में हमें और
किसी बात की आवश्यकता नहीं रहेगी। संपूर्ण ज्ञान हममें ही निहित है। आत्मा स्वभावत: ही पूर्ण है, किंतु यह पूर्णत्व माया से ढका हुआ है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर हमारी वृत्ति के आवरण पर आवरण चढ़े हुए हैं। तब ऐसी अवस्था में हमें क्या करना पड़ता है? वास्तव में हम अपनी आत्मा की बिल्कुल उन्नति नहीं करते। जो पूर्ण है, उसका विकास कौन कर सकता है? हम केवल परदा दूर हटा देते हैं और आत्मा अपने नित्यशुद्ध और नित्यमुक्त रूप में प्रकट हो जाती है।
No comments:
Post a Comment
Please Give Your Valuable Comments